राजनीति एक अबूझ पहेली है… ये कब किसको अपना ले… और कब किसको रेजेक्ट कर दे… ये किसी को खबर नहीं… आज किस्सा में सपा संरक्षक मुलायम सिंह यादव की राजनीति के उस हिस्से का… जिसकी वजह से उन्हें राजनीति को ना चाहते हुए भी अपनाना पड़ा… यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव और समाजवादी पार्टी के संरक्षक ने कभी नहीं सोचा था कि वह एक दिन नेता बनेंगे… लेकिन वो स्थितयां बनीं जिसके कारण उन्हें राजनीति के अखाड़े में दांव-पेंच दिखाने के लिए आना पड़ा…. मुलायम तो शुरू से ही अखाड़े को अपनी कर्मभूमि मानते थे और पहलवानी में ही अपना भविष्य देखते थे… लेकिन उनकी इसी कला ने उन्हें नत्थूसिंह का करीबी बना दिया… नत्थूसिंह उस समय सोशलिस्ट पार्टी के जसवंत नगर से विधायक थे और उनकी नजर एक छोटी कद-काठी वाले फुर्तीले पहलवान पर पड़ी… जिसका नाम था- मुलायम सिंह यादव… धीरे-धीरे मुलायम के बौद्धिक कौशल और अखाड़े के दाव-पेच नत्थूसिंह को पसंद आने लगे….
फिर एक दौर आया… वो साल 1967 का था… जब यूपी में विधानसभा का चुनाव होने वाला था… तब नत्थूसिंह ने विधायक के लिए अपनी जगह मुलायम सिंह यादव के नाम का प्रस्ताव रख दिया… मुलायम बहुत युवा थे और लंबे समय से राम मनोहर लोहिया के आंदोलन जुड़े हुए थे…जैसे ये ऐलान हुआ… सब लोग हैरान रह गए… क्योंकि मुलायम ने इससे पहले कभी इतना बड़ा चुनाव नहीं लड़ा था… सोशलिस्ट कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया चाहते थे कि नत्थूसिंह ही दोबारा इस सीट से चुनाव लड़ें, लेकिन नत्थूसिंह अपनी बात पर अड़े हुए थे… नत्थूसिंह ने राम मनोहर लोहिया को ये आश्वासन दिलाया कि अगर मुलायम सिंह यादव इस सीट से चुनाव लड़ेंगे तो जीत सुनिश्चित है… लेकिन उस दौर में कांग्रेस ने इसे अपनी जीत मान लिया… उनकी बांछें खिल गईं….कांग्रेस के स्थानीय नेता मुलायम को ‘कल का छोकरा’ कहकर बुलाने लगे… कांग्रेस ने अपने चुनाव प्रचार को धार दी और पंडित नेहरू और शास्त्री जी के नाम पर वोट मांगने लगे…इस चुनाव में मुलायम ने गांव-गांव जाकर प्रचार किया और अपनी जीत सुनिश्चित की…इसके बाद इसी सीट से उन्होंने लगातार कई बार जीत हासिल की और साल 1977 में पहली बार सहकारिता मंत्री भी बने