Akhilesh Yadav की छवि में ‘नेताजी’ की धांसू एंट्री… मुलायम जैसी राजनीति अब अखिलेश कर रहे, तथ्यों से समझिए !

अखिलेश की सोच में अब मुलायम समा गए… अब डर नहीं करेंगे मुकाबला
मुलायम जैसा चाहते थे कांग्रेस से रहे रिश्ता… अब अखिलेश वैसा ही रिश्ता कांग्रेस से बना रहे
मुलायम ने जाते जाते अखिलेश को दे दिया अपना सियासी संस्कार… अब दूरदर्शी सोच के अधिकार के साथ बीजेपी से करेंगे मुकाबला

सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव में एक अक्श दिख रहा है… उनकी राजनीतिक सोच में अचानक से उनके पिता मुलायम सिंह यादव की छवि दिखाई देने लगी है… एक दूरदर्शी सोच दिवंगत मुलायम सिंह यादव में हुआ करती थी… वही अब अखिलेश में दिखने लगी है… अखिलेश की सियासत अब भांप रही है… किसके साथ जाने से क्या सियासी परिणाम हो सकते हैं… वो पक्ष में जाएगा या फिर खिलाफ… अखिलेश में मुलायम की सोच कैसे समा गई है.. उसका सबसे पहला सबूत है.. सपा ने 2024 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ किसी गठबंधन से इनकार कर दिया है… अखिलेश कह रहे हैं…

कांग्रेस अपनी भूमिका तय करे… कांग्रेस राष्ट्रीय पार्टी है, हमलोग क्षेत्रीय पार्टी हैं… संसद में किसी मुद्दे पर कांग्रेस के साथ आने का मतलब जमीन पर साथ आना नहीं है

यानी अखिलेश को उस जमीनी हकीकत का पता चल गया जो राममनोहर लोहिया के चेले और उनके पिता नेताजी मुलायम सिंह यादव को पहले दिन से पता था। कांग्रेस से रिश्ता रखो लेकिन गठबंधन नहीं… इसी नीति पर मुलायम सिंह यादव चलते रहे… मुलायम सिंह यादव 1967 में पहली बार विधायक बने तो कांग्रेस विरोध के कारण… लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर जसवंतनगर से उन्होंने जीत हासिल की… 52 साल के राजनीतिक करियर में उन्होंने कांग्रेस से दोस्ती भी रखी और दुश्मनी भी लेकिन कभी साथ चुनाव नहीं लड़ा… उत्तर प्रदेश में कांग्रेस से परेशान ओबीसी को साधने वाले मुलायम ने यही मंत्र अखिलेश यादव को भी दिया था… लेकिन दुश्मन यानी बीजेपी के डर से वो इतने भयभीत हो गए कि दो साल के भीतर राहुल के साथ यूपी के लड़के भी कहलाए और बुआ यानी मायावती के भतीजे भी… परिणा क्या आया सबको पता है… और शायद यही बात शिवपाल ने अखिलेश के कान में कही होगी… जिसके बाद अखिलेश ने ममता बनर्जी के कान में कही होगी… सपा ने खुद तो कांग्रेस से दुरी बनाई… अब ममता खुद कांग्रेस से अलग हुईं तो उसका विरोध पश्चिम बंगाल में आज तक जारी है। अखिलेश को पता चल गया है कि कांग्रेस के साथ दिल्लगी का मतलब अपनी जड़ें काटना होगा…

मुलायम हमेशा कांग्रेस से सीधे सीधे दोस्ती करने से दुरी बनाए रखी… 1989 में जब जनता दल के नेता के तौर पर वो पहली बार यूपी के सीएम बने तो ये कांग्रेस विरोध का नतीजा थी… और केंद्र में वीपी सिंह की तरह यूपी में भी भारतीय जनता पार्टी ने उनकी सरकार को समर्थन दिया..। जब 1990 के आखिर में जनता दल टूट गई तो मुलायम समाजवादी जनता दल में चले गए जो चंद्रशेखर का गुट था… उनकी सरकार बच गई क्योंकि कांग्रेस ने समर्थन दे दिया… अचानक राजीव गांधी ने चंद्रशेखर के साथ खेल कर दिया तो यूपी में भी सरकार गिर गई… 1991 के चुनाव में मुलायम सिर्फ 34 सीटों पर सिमट गए… अगले साल उन्होंने समाजवादी पार्टी की स्थापना की… ऐसा नहीं है कि मुलायम सिंह यादव ने गठबंधन से परहेज किया… लेकिन समाजवादी सोच के साथ ऐसा किया। वैचारिक विरोधियों से चुनाव मैदान में हाथ नहीं मिलाया…लेकिन बाहर दोस्ती जारी रही… बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद जब 1993 में यूपी में चुनाव हुए तो कांशीराम और मुलायम साथ लड़े… दोनों की जोड़ी ने प्रचंड भगवा लहर को रोक दिया… 422 में 420 सीटों पर सपा-बसपा लड़ी और 176 सीटें झोली में गई… बीजेपी अकेले 177 सीटें जीती… लिहाजा बीजेपी को बाहर रखने के लिए मुलायम ने कांग्रेस से समर्थन ले लिया… चार दिसंबर, 1993 को सीएम बन गए। लेकिन जनवरी, 1995 में कांग्रेस ने समर्थन वापस ले लिया…

सवाल उठता है कि नेताजी का वोटर कौन था और अखिलेश ने उनके साथ कैसा पहले कार्यकाल में मुलायम ने एससी, एसटी, ओबीसी के बच्चों के लिए कोचिंग स्कीम शुरू की… मंडल कमिशन की तर्ज पर ओबीसी रिजर्वेशन 15 परसेंट से बढ़ाकर 27 परसेंट किया… 2003 से 2007 के बीच मुलायम ने ही सरकार चलाई और फिर मायावती ने दलित-ब्राह्मण गठजोड़ से प्रचंड बहुमत हासिल किया… फिर बारी अखिलेश की आई… 2012 में यूपी को नौजवान सीएम मिला… लेकिन अखिलेश ने 2017 में वो गलती की जिसका सबक उन्हें 2023 में मिला है…

अब अखिलेश के कोलकाता मंथन को देखें तो ऐसा लगता है कि देर हुई है पर वो दुरूस्त लौटे हैं… मुलयाम ने कांग्रेस विरोध और धर्मनिरपेक्षता को अपनी राजनीति की धुरी बनाई… इस मामले में वो लालू यादव से अलग रहे… लालू हमेशा कांग्रेस को साथ लेकर चलने के हिमायती रहे हैं… दूसरी ओर मुलायम चुनाव के बाद कांग्रेस के समर्थन से एचडी देवगौड़ा को पीएम बनाकर खुद मंत्री बन गए लेकिन चुनाव से पहले गठबंधन नहीं किया… ममता बनर्जी, अखिलेश यादव और केसीआर इसी रास्ते पर हैं… अब थर्ड फ्रंट बनता है या नहीं… बनता भी है तो रणनीति अपने-अपने राज्यों में कांग्रेस के खिलाफ लड़ने की हो सकती है… फिर नतीजों के बाद फ्रंट कोई भी हो , पूरे विपक्ष को मिलाकर मैजिकल नंबर मिलता है तो दिल्ली में कांग्रेस से दूरी मिनटों में दूर हो सकती है… इस लिहाज से अखिलेश का यूपी प्लान रास्ते पर है… उन्होंने जातीय गणना को बड़ा मुद्दा बनाया है और 34 हजार करोड़ के निवेश के दावे पर वो लगातार हिसाब मांगने वाले हैं… तो क्या माना जाए अखिलेश की सियासी सोच में अब मुलायम की राजनीति समा गई है… जिसमें डर नहीं बल्कि रणनीति ही रणनीति है… मुलायम जैसा चाहते थे कांग्रेस से रिश्ता रहे… अब अखिलेश वैसा ही रिश्ता कांग्रेस से बना रहे..