महंत, एक ऐसा शब्द जो व्यक्ति के इर्द-गिर्द एक विशिष्ट धार्मिक, आध्यात्मिक औरा बना देता है। वर्तमान भारतीय सनातन पद्धति में महंत शब्द की उत्पत्ति और विकास का मर्म समझने के लिए अब से 13 सौ वर्ष पूर्व के धार्मिक इतिहास पर एक नजर डालनी होगी। हमें पन्ने उलटने होंगे उस काल के जब आदिगुरु शंकराचार्य ने सुशुप्तावस्था की ओर बढ़ चले सनातनी संस्कारों में नवीन प्राण का संचार किया था।

राष्ट्र और संस्कृति की रक्षा के लिए ब्राह्मण और क्षत्रिय परिवारों से उन्होंने तरुणों और युवाओं को मांगा। फिर उन्हें बौद्धिकता और सैन्यकला में निपुण बनाया। ब्राह्मण-क्षत्रिय परिवारों के यही तरुण और युवा नागा संन्यासी के रूप में विकसित हुए। सात अखाड़ों में विभक्त कर आदिशंकरचार्य ने नागा संन्यासियों की फौज का गठन किया। हर फौज के जिम्मे अलग बौद्धिक और सैन्य लक्ष्य होता था। सबके मोर्चे अलग-अलग होकर भी राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक सशक्तता की दृष्टि से एक सूत्र में बंधे थे। इन सात मूल अखाड़ों में आह्वान, अटल, निरंजनी, महानिर्वाणी, आनंद, जूना और अग्नि अखाड़ा शामिल हैं। वैष्णव वैरागियों के तीन अखाड़े निर्वाणी, निर्मोही और दिगंबर,बड़ा उदासीन अखाड़ा, नया उदासीन अखाड़ा एवं निर्मल अखाड़ा भी अस्तित्व में आ गए।

1842 से शुरू हुआ गुलाबो देवी का कार्यकाल : मंदिर ध्वंस के बाद जब औरंगजेब की सेना कुछ महीनों बाद लौट गई तो उस नवनिर्माण के निकट पं. भीमराम लिंगिया ने उसी साल ज्योतिर्लिंग की पुन: स्थापना कर पूजन अर्चन आरंभ कर दिया। समय के साथ साथ उस स्थान को लेकर भी कई बार विवाद हुआ।

एक समय में काशी में संस्कृत का अध्ययन करने आए दाराशिकोह तक बात पहुंची थी। तब दाराशिकोह ने लिगिंया परिवार के नाम पट्टा लिखा था जिसमें जिक्र है कि काशी विश्वनाथ मंदिर का स्थान लिंगिया परिवार का है जो इस मंदिर का महंत है। सन 1842 से लेकर अब तक कुल तीन ऐसे मौके आए हैं जब काशी विश्वनाथ मंदिर के महंत के पद को महिलाओं ने सुशोभित किया है। सन 1842 से 1866 तक गुलाबो देवी, सन् 1905 से 1913 तक इंद्राणी देवी और 1952 से 1960 से तक अन्नपूर्णा देवी ने बतौर महंत काशी विश्वनाथ मंदिर का दायित्व संभाला है।

गुलाबो देवी के निधन के बाद 1866 से 1889 तक पं. रामदत्त पांडेय, 1889 से 1905 तक पं. विश्वेश्वर दयाल, 1905 से 1913 तक इंद्राणी देवी, 1913 से 1917 तक पं. उमाशंकर तिवारी और 1917 से 1938 तक पं. महावीर प्रसाद तिवारी श्रीकाशी विश्वनाथ मंदिर के महंत की गद्दी पर विरामान रहे।