इसके साथ ही आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत, सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले और कई अन्य वरिष्ठ पदाधिकारियों के ट्विटर हैंडल पर भी तिरंगे की डीपी नहीं लगाई गई है। संघ के ट्विटर हैंडल पर कवर फोटो के रूप में स्वयं सेवकों के दीक्षा समारोह की एक फोटो लगी है, तो डीपी पर अंग्रेजी के अक्षरों में आरएसएस (RSS) लिखा होने के साथ भगवा ध्वज लहरा रहा है। इसे आरएसएस के लोगो की तरह देखा जाता है। संघ का तिरंगे को लेकर विवाद क्या है और इस विवाद की सच्चाई क्या है?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 31 जुलाई को ‘मन की बात’ कार्यक्रम में लोगों से अपने सोशल मीडिया एकाउंट पर तिरंगे की डीपी लगाने की अपील की थी। उन्होंने स्वयं 2 अगस्त को अपने ट्विटर एकाउंट पर तिरंगे की डीपी लगाई थी। इसके बाद बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा, केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह सहित सभी भाजपा नेताओं ने अपने सोशल मीडिया एकाउंट पर तिरंगे की डीपी लगाकर 13 अगस्त से 15 अगस्त तक चलने वाले ‘हर घर तिरंगा’ अभियान के प्रचार को मजबूती दी। लेकिन इसके बाद भी भाजपा के मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) के नेताओं ने अपने सोशल मीडिया एकाउंट पर तिरंगे की डीपी नहीं लगाई जिससे विवाद खड़ा हो गया। 

आरोप और सच्चाई

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) पर हमेशा यह आरोप लगता रहा है कि वह तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में स्वीकार नहीं करता। आरोप है कि संघ ने अपने मुख्यालय नागपुर में 2002 के पहले तक कभी तिरंगा नहीं फहराया। कहा जाता है कि वह हिंदू राष्ट्र के प्रतीक के रूप में ‘भगवा ध्वज’ को ‘राष्ट्रीय झंडा’ बनाना चाहता है। हालांकि, आरएसएस नेता इस आरोप को हमेशा नकारते रहे हैं। उनका कहना है कि आरएसएस ने आजादी के आंदोलन में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में स्वीकार करने के समय उसकी कुछ शुरूआती आपत्तियां अवश्य थीं, लेकिन जब एक बार यह राष्ट्रीय ध्वज के रूप में स्वीकार कर लिया गया तब उसने भी इसे अपनाया और समय-समय पर अपने कार्यक्रमों में फहराया। हालांकि, उसने इसका कभी श्रेय लेने की कोशिश नहीं की, जबकि राजनीतिक दुर्भावनावश इस विषय में उसके खिलाफ दुष्प्रचार किया जाता रहा।

2002 के बाद क्यों लहराया तिरंगा

दरअसल, लगभग बाईस साल पहले एक युवक ने 26 जनवरी 2001 को नागपुर मुख्यालय पर तिरंगा फहराने की कोशिश की थी। इस पर उसे गिरफ्तार कर नागपुर की स्थानीय अदालत में पेश किया गया था। कहा जा रहा है कि इसके बाद 2002 से प्रमुख अवसरों पर आरएसएस मुख्यालय में तिरंगा फहराया जाता है। हालांकि, संघ पदाधिकारियों ने कहा कि यह अधूरा सच है। 

सच्चाई यह है कि इसके पहले प्राइवेट प्रॉपर्टी पर तिरंगा लहराना ‘अपराध’ कानूनन गलत माना जाता था। नवीन जिंदल नाम के एक व्यापारी को अपनी प्राइवेट प्रॉपर्टी पर तिरंगा फहराने के आरोप में स्थानीय एसडीएम ने नोटिस जारी कर दिया था जिसके बाद व्यापारी कोर्ट चले गए थे। इस मामले की सुनवाई पूरी होने के अवसर पर अदालत ने देशवासियों को तिरंगा लहराने का अधिकार दिया और इसके बाद से लगातार नागपुर सहित संघ के सभी कार्यालयों पर स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र जैसे कार्यक्रमों में तिरंगा लहराया जाता है। 

ऐतिहासिक विरोध का दावा

वहीं, आरएसएस के जानकार शम्सुल इस्लाम का दावा है कि 1929 के कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में यह तय किया गया था कि 26 जनवरी से विभिन्न कार्यक्रमों में तिरंगा (उस समय तिरंगे के बीच में चक्र के स्थान पर चरखा होता था।) लहराया जाएगा। लेकिन उसी समय संघ ने एक सर्कुलर जारी कर अपने स्वयं सेवकों को कहा था कि वे अपनी शाखाओं में भगवा ध्वज फहराएं।

उन्होंने संघ की एक पुस्तक ‘श्रीगुरू जी समग्र दर्शन वाल्यूम-1’ के आधार पर दावा किया है कि 14 जुलाई 1946 को संघ के दूसरे प्रमुख गुरू गोलवलकर ने स्वयं सेवकों को संबोधित करते हुए कहा था, ‘’हमको पक्का विश्वास है कि भगवा ध्वज हमारी संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है। ये ईश्वर का प्रतिरूप है। हमें पूरा विश्वास है कि पूरा देश एक दिन भगवा ध्वज को नमन करेगा।”

उन्होंने दावा किया कि 17 जुलाई 1947 को प्रकाशित संघ के मुखपत्र ऑर्गनाइजर में एक लेख में गुरू गोलवलकर ने कहा था कि झंडा राष्ट्र का प्रतीक होता है। उन्होंने कहा था कि इस देश में केवल एक ही राष्ट्र है, वह है हिंदू राष्ट्र जिसका पांच हजार साल पुराना इतिहास है। उन्होंने यहां तक कहा था कि यह संभव नहीं है कि वे कोई ऐसा झंडा चुनें जो सभी समुदायों की इच्छाओं को संतुष्ट कर सके। बाद में 14 अगस्त 1947 के एक लेख में उन्होंने कहा था कि तीन रंगों का ध्वज इस देश के हिंदुओं को कभी स्वीकार नहीं होगा। उनका मत है कि आरएसएस को यह आपत्ति केवल इसलिए था क्योंकि वे भगवा को राष्ट्रध्वज बनाना चाहते थे।

आपत्तियां खारिज की जा चुकी हैं

हालांकि, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) ने स्वयं गुरू गोलवलकर के कई विचारों को ‘पुराने समय की सोच’ खारिज कर दिया है। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने सितंबर 2018 में कहा था कि एमएस गोलवलकर के कुछ विचार समय के साथ प्रासंगिक नहीं रह गए हैं। संघ बंच ऑफ थॉट्स में लिखे गए गुरू गोलवलकर के पुराने विचार को पकड़कर नहीं चलना चाहता है, बल्कि वह समय के साथ लगातार नवीन विचारों के साथ आगे बढ़ने को उद्यत है। संघ नेताओं के मुताबिक, मोहन भागवत के इस बयान के बाद ‘बंच ऑफ थॉट्स’ के कुछ बिंदुओं को लेकर विवाद खड़ा करना उचित नहीं है।    

आजादी के अगले वर्ष ही स्पष्ट कर दिया था अपना विचार

संघ पदाधिकारी बताते हैं कि, आरएसएस के द्वितीय सर संघ चालक एमएस गोलवलकर (जिन्हें अक्सर गुरुजी कहकर संबोधित किया जाता है) ने एक प्रेसवार्ता के दौरान 1948 में ही स्पष्ट कर दिया था कि संघ के स्वयंसेवक तिरंगे की रक्षा के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा देंगे। स्वयं सेवकों ने 1955 में इस बात को गोवा मुक्ति अभियान के दौरान अपनी जान देकर प्रमाणित भी कर दिया था। लेकिन संघ के कुछ नेता भी यह मानते हैं कि शुरूआती दौर में मीडिया या प्रचार-प्रसार से दूर रहने की संघ की नीति के कारण उसके कार्य अपेक्षित प्रचार-प्रसार नहीं पा सके जिसके कारण कुछ लोगों में संघ की भूमिका को लेकर कुछ भ्रम पैदा हुआ।

संघ कर चुका है समर्थन का ऐलान- RSS 

इस विवाद पर प्रश्न करने पर आरएसएस के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर ने अमर उजाला से कहा कि संघ ने आजादी के अमृत महोत्सव को अपना समर्थन दे रखा है। गत माह के नौ जुलाई को एक प्रेसवार्ता में भी यह बात स्पष्ट कर दी गई थी कि संघ अमृत महोत्सव के सभी कार्यक्रमों में अपनी सहभागिता देगा। स्वयंसेवकों से इस तरह के कार्यक्रमों में बढ़चढ़कर भाग लेने की बात भी कही गई थी, इसलिए इस मुद्दे पर व्यर्थ के विवाद पैदा करने की बजाय लोगों को सकारात्मक राजनीति पर ध्यान देना चाहिए और अमृत महोत्सव को मनाने में अपनी भूमिका निभानी चाहिए।    

तिरंगा फहराने में आरएसएस के स्वयंसेवकों ने गंवाई जान

संघ के एक नेता ने अमर उजाला को बताया कि, आजादी के पूर्व अंग्रेजी शासन के दौरान बिहार के कुछ युवकों ने सरकार के पटना स्थित सचिवालय पर तिरंगा फहराने का प्रयास किया था। 11 अगस्त 1942 को घटी इस घटना में पुलिस ने तिरंगा फहराने की कोशिश कर रहे युवकों पर फायरिंग शुरू कर दी। लेकिन आजादी के दीवाने युवाओं ने सचिवालय पर तिरंगा फहराने में सफलता प्राप्त कर ली। हालांकि, इसमें छः युवकों को अपनी जान गंवानी पड़ी। इन मृतकों में देवीपाद चौधरी और जगतपति कुमार आरएसएस के सक्रिय कार्यकर्ता थे। 

संघ नेताओं के मुताबिक, भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के समय जब पंजाब-सिंध और जम्मू-कश्मीर प्रांत में दंगे भड़क उठे थे, और भारतीय सेना की डोगरा यूनिट देश को बचाने के लिए लड़ रही थी, तब आरएसएस के स्वयं सेवकों ने हाथ में तिरंगा लेकर भारतीय नागरिकों को हिंसा से बचाने का सफल प्रय़ास किया था। स्वयं सेवकों ने भारतीय सेना की हर संभव मदद करने की कोशिश की थी। इस दौरान उसके सैकड़ों स्वयंसेवकों की जान भी गई थी। 

गोवा की आजादी के दौरान भी फहराया तिरंगा, गंवाई जान

देश की आजादी के बाद भी गोवा, दमन-दीव आजाद नहीं हुआ था। 1947 के बाद भी इन क्षेत्रों पर पुर्तगाली शासन कायम था। आरएसएस ने केंद्र की नेहरू सरकार के सामने इसका पुरजोर विरोध किया था। इसी क्रम में 2 अगस्त 1954 को विनायक राव आप्टे के नेतृत्व में पुणे के लगभग सौ आरएसएस स्वयंसेवकों ने दादरनगर हवेली और सिलवासा के पुर्तगाली केंद्रों पर हमला बोल दिया था। इस घटना में 175 पुर्तगाली सैनिकों को बंदी बना लिया गया था और इसके बाद पुर्तगाली केंद्रों पर तिरंगा लहराया गया था।

इस घटना के 25 साल बाद 2 अगस्त 1979 को इन स्वयंसेवकों को सिलवासा में स्थानीय प्रशासन द्वारा सम्मानित भी किया गया था। इसी प्रकार बाद के घटनाक्रम में, आरएसएस और जनसंघ ने पुर्तगाली शासन के विरोध में राजाभाऊ महाकाल के नेतृत्व में 1955 में बड़ा आंदोलन किया। इसी विरोध प्रदर्शन में राजाभाऊ महाकाल की मौत हो गई थी।     

स्वतंत्रता के पूर्व भूमिका को लेकर संघ नेता ने कहा

तिरंगे को लेकर संघ की आपत्तियों के विवाद के बावजूद आरएसएस के सह सर कार्यवाह डॉ. मनमोहन वैद्य ने कहा है कि 1920 में कांग्रेस का अधिवेशन नागपुर में हुआ था। लोकमान्य तिलक ने इस कार्यक्रम को सफल बनाने की जिम्मेदारी उस समय के नागपुर शहर के कांग्रेस के संयुक्त सचिव (बाद में आरएसएस के संस्थापक) डॉ. हेडगेवार पर डाली थी। उन्होंने अपने 1200 साथियों के साथ मिलकर उस कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए काम किया था। हेडगेवार ने इसी अधिवेशन में कांग्रेस का लक्ष्य पूर्ण स्वराज हासिल करना बताया था जिसे 1929 में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में स्वीकार किया गया था। (इसके लिए हेडगेवार ने कांग्रेस को सम्मानित करने का कार्यक्रम भी किया था।)

वैद्य ने कहा है कि क्या कांग्रेस इस बात से इनकार कर सकती है कि यह कार्यक्रम नागपुर में नहीं हुआ या इसको सफल बनाने में डॉ. हेडगेवार ने योगदान नहीं दिया? स्वतंत्रतापूर्व के आंदोलनों से लेकर स्वतंत्रता बाद के कई अवसरों पर सुभाषचंद्र बोस सहित कई लेखकों ने समय-समय पर आरएसएस नेताओं के देशभक्ति के कार्यों की सराहना की है। संघ नेता ने पूछा है कि क्या कांग्रेस या वामपंथी नेता उन ऐतिहासिक उद्धरणों को भी अस्वीकार करते हैं जिनमें नेहरू, पटेल और इंदिरा जैसे नेताओं ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की प्रशंसा की थी?