राजनीति में जनता पार्टी, जन संघ और जनता दल की उठा पठक चलती रहती है…1989-90 में देश में मंडल और कमंडल की सियासत शुरू हुई….आधिकारिक तौर पर पिछड़े वर्ग की जातियों का कैटेगराइज़ेशन हुआ और पिछड़ों की सियासी ताकत पहचानी गई…बनिया और ब्राह्मण की पार्टी कही जाने वाली बीजेपी ने पिछड़ों का चेहरा कल्याण सिंह को बनाया….ये वो दौर जब कल्याण सिंह के कुछ फैसलों से उनकी पहचान बनीं…
कल्याण सिंह की इस समय दो पहचान बन रही थी. वो हिंदू हृदय सम्राट के साथ लोधी राजपूतों के मुखिया भी बन रहे थे. भाजपा में महाराष्ट्र के ब्राह्मणों की जगह ओबीसी जातियों से आने वाले फायरब्रांड नेता सामने आने लगे और कल्याण इनके मुखिया बने. मुसलमानों से लड़ाई के नाम पर जातियां भुलाई जाने लगीं. पर जातियों का वर्चस्व खत्म तो नहीं हो रहा था. इन नए लोगों से नाराज अपर कास्ट के लोगों ने पार्टी के अंदर अपना वर्चस्व बनाने के लिए भीतर ही भीतर जंग छेड़ दी थी. उसी वक्त हर टिकट बंटवारे पर नाराज होने वाली भाजपाई परंपरा भी शुरू हो गई थी.
1991 में भाजपा 221 सीटें लेकर यूपी विधानसभा में आई लेकिन 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद गिरा दी गई और कल्याण सिंह की सरकार को बर्खास्त कर दिया गया….6 दिसंबर हिंदुस्तान के इतिहास का काला दिन था…1993 में फिर चुनाव हुए. भाजपा के वोट तो बढ़े पर सीटें घट गईं. भाजपा सत्ता से बाहर ही रही. इसके दो साल बाद बसपा के साथ गठबंधन कर भाजपा फिर सत्ता में आई पर भाजपा का मुख्यमंत्री नहीं बना. पर देश की राजनीति बदल गई. केंद्र में कांग्रेस की सरकार बड़ी बेइज्जत हुई…अब दौर आया था अटल बिहारी वाजपेयी का. चारों ओर धूम मच गई – ‘अबकी बारी अटल बिहारी’. केंद्र में भी माहौल चेंज हुआ और यूपी में भी.