प्रदेश में आसन्न विधानसभा चुनावों के मद्देनज़र कमोबेश हर राजनीतिक दल अन्य पिछड़े वर्गों की जातियों में गणित फिट करने में जुटा है। खासतौर राजभर जाति की राजनीति को लेकर चर्चा इन दिनों गर्म है। चाहे सपा हो, बसपा या फिर भाजपा कमोबेश हर दल कोई न कोई सियासी कदम उठा कर राजभर समाज को पाले में बना रखने की जुगत में लगा हैं। लेकिन कभी बसपा और फिर वर्ष 2016 में भाजपा की ओर मुड़ा राजभर समाज मिशन-2022 में किस करवट बैठेगा? यह यक्ष प्रश्न बना हुआ है।

अखिलेश यादव ने आजमगढ़ की दीदारगंज सीट से बसपा के खांटी नेता रहे सुखदेव राजभर के घर जाकर इस सियासत को एक बार फिर गर्मा दिया है। सवाल उठने लगे हैं कि सपा के इस कदम से क्या पूर्वांचल में राजभर समाज पार्टी की ओर आकर्षित होगा। सुभासपा के राष्ट्रीय महासचिव अरुण राजभर कहते हैं-‘महज पुत्र को सियासत में स्थापित करने के लिए उठाया गया यह कदम राजभर समाज को आकर्षित नहीं कर सकेगा। ऐसे नेताओं ने स्वार्थसिद्धि के लिए ही बसपा में रहकर समाज का शोषण करने वालों का हमेशा साथ दिया।’ सुभासपा भी कई दलों से संपर्क में है लेकिन बात किससे बनेगी यह तय नहीं है। सपा के इस कदम से उसके सपा से गठबंधन की उम्मीदें भी कम होती नजर आ रही हैं।

प्रदेश में मंडल की राजनीति के उदय के साथ ही राजभर समाज बहुजन समाज पार्टी से जुड़ा रहा है। सुखदेव राजभर, बसपा के प्रदेश अध्यक्ष राम अचल राजभर साथ ही बब्बन राजभर पार्टी के कद्दावर नेता रहे। रामअचल राजभर को बसपा ने हाल ही में बाहर का रास्ता दिखाया। राजभरों के पार्टी से छिटकते परिदृश्य को सहेजने के लिए ही मायावती ने भीम राजभर को बसपा का प्रदेश अध्यक्ष बनाया है। कहना गलत न होगा कि राजभरों का बसपा से मोहभंग होना वर्ष 2016 में तब शुरू हुआ जब भाजपा के वरिष्ठ नेता अमित शाह ने बहराइच में सुहेलदेव स्मारक की नींव रखी। सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी से भाजपा का गठबंधन हुआ। राजनीतिक विश्लेषक पूर्व आईजी अरुण कुमार गुप्ता कहते हैं-‘नि:संदेह इस कदम से भाजपा को पूर्वांचल में बड़ा लाभ मिला। करीब दो दर्जन से ज्यादा सीटों पर उसे भारी जीत मिलीं लेकिन अब वर्ष 2022 में यह राह पहले जैसी आसान नहीं दिख रही। वजह है सुभासपा का अलग होकर प्रदेश के कोने-कोने में सरकार पर हमलावर होकर अपनी स्थिति मजबूत करना माना जा रहा है।’

भाजपा के कैबिनेट मंत्री अनिल राजभर इसके इतर राय रखते हैं। वह कहते हैं-‘सपा, बसपा की स्वार्थ भरी सियासत के कारण ही राजभर समाज ज्यादा आबादी होने के बावजूद वाजिब हक नहीं पा सका। सोनकर, पासी समाज को एससीएसटी का आरक्षण बाद में मिला, जबकि राजभर पहले से ही एससी का आरक्षण पाने के हकदार थे और मांग करते रहे। इसी अनदेखी के चलते छोटे सियासी दल पनपे, जिन्हें भाजपा ने गठबंधन के जरिये पहली बार विधायक बनाया। वही आज समाज की रहनुमाई का दावा कर रहे हैं, जिन्होंने अपने परिवार के अलावा कुछ नहीं किया। आठ सीटें मांगीं। जिसमें चार जनरल मांगी गईं। चार सामान्य एक पर खुद एक पर बेटे और एक पर समधि को लड़ाया। तब किसी को राजभर की याद नहीं आई।’
 
भाजपा का दावा :-

लोकसभा चुनाव-2019 में राजभर समाज ने सुभासपा को खुलकर नकार दिया था। मछलीशहर संसदीय सीट की पिंडरा विधानसभा सीट पर ही सुभासपा के उम्मीदवार को 3000 वोट मिले थे। कुछ ऐसी ही स्थिति घोसी विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में रही।

सुभासपा का दावा :-

पंचायत चुनाव में पार्टी को 18 लाख वोट से ज्यादा मिले हैं। पार्टी ने पूरे प्रदेश में 117 जिला पंचायत सदस्य जिताए हैं। विधानसभा चुनावों में भी इसका असर दिखेगा।